गीता का गहन ज्ञान: या तो विराट हो जाओ या राख हो जाओ

 


भगवद गीता, जो भगवान कृष्ण और अर्जुन के संवाद पर आधारित है, मानवता को जीवन के सबसे गहन प्रश्नों के उत्तर देती है। यह केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला और दर्शन है। गीता में भगवान कृष्ण ने कर्म, क्रिया, योग, और समर्पण के माध्यम से जीवन का सत्य बताया है। यह ब्लॉग गीता के मुख्य सिद्धांतों और "या तो विराट हो जाओ या राख हो जाओ" की गहराई को समझने का प्रयास करेगा।



समत्व योग: स्थिरता का मार्ग

भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है:
"समत्वं योग उच्यते।"
इसका अर्थ है कि स्थिरता ही योग है। जीवन में सुख-दुख, हानि-लाभ, सफलता-असफलता का सामना हर किसी को करना पड़ता है। परंतु, जो व्यक्ति इन सभी परिस्थितियों में समान भाव से रहता है, वह सच्चा योगी है।

योग केवल शारीरिक आसनों या ध्यान तक सीमित नहीं है। यह एक मानसिक और भावनात्मक संतुलन की स्थिति है। कृष्ण ने इसे घड़ी के पेंडुलम से समझाया। जैसे पेंडुलम दोनों छोरों के बीच झूलता है और एक संतुलन बिंदु पर ठहरता है, वैसे ही हमें जीवन के उतार-चढ़ाव के बीच संतुलन बनाए रखना चाहिए। यही समत्व योग है।


क्रिया और कर्म का गहन अंतर

कृष्ण ने कर्म और क्रिया के बीच एक स्पष्ट अंतर बताया है।

  • क्रिया: वह है जो स्वाभाविक रूप से होती है। जैसे सांस लेना, दिल का धड़कना, खाना पचाना। यह सब हमारी इच्छा के बिना होता है।
  • कर्म: वह है जो हमारी इच्छाओं और अहंकार से प्रेरित होकर किया जाता है।

रात में जब हम सोते हैं, तो हमारा दिल धड़कता है, सांस चलती है, और शरीर अपना कार्य करता है। यह क्रिया है। लेकिन दिन में, जब हम किसी कार्य में अपने अहंकार, इच्छाओं, और भावनाओं को जोड़ देते हैं, तो वह कर्म बन जाता है।

कृष्ण कहते हैं कि यदि हम अपने कार्यों को क्रिया के रूप में करें और उसमें अहंकार या व्यक्तिगत इच्छाओं को शामिल न करें, तो हम दुखों से बच सकते हैं।


या तो राख हो जाओ या विराट हो जाओ

कृष्ण का यह प्रसिद्ध कथन गीता का सार है।
"या तो राख हो जाओ या विराट हो जाओ।"
इसका अर्थ है कि हमें अपने अहंकार को पूरी तरह मिटा देना चाहिए (राख होना) या अपने अस्तित्व को इतना विशाल बना लेना चाहिए कि हम ब्रह्मांड के साथ एक हो जाएं (विराट होना)।

जब व्यक्ति अपने अहंकार को मिटा देता है, तो वह प्रेम, शांति, और आनंद का प्रतीक बन जाता है। और जब वह अपने अस्तित्व को प्रेम, ज्ञान, और सेवा से विस्तार देता है, तो वह विराट हो जाता है।


स्त्री और पुरुष के मार्ग: समर्पण और संकल्प

कृष्ण ने स्त्री और पुरुष के स्वभाव के आधार पर उनके अलग-अलग मार्ग बताए:

  1. स्त्री का मार्ग: समर्पण
    स्त्री स्वाभाविक रूप से प्रेम, दया, और सेवा की मूर्ति होती है। वह अपनी पहचान को मिटाकर समर्पण करती है।
    कबीर कहते हैं:
    "मिटा दे अपनी हस्ती को, अगर कुछ मर्तबा चाहिए।
    कि दाना खाक में मिलकर गुले गुलजार होता है।"
    स्त्री का यह समर्पण उसे शांति और तृप्ति की ओर ले जाता है।

  2. पुरुष का मार्ग: संकल्प
    पुरुष का स्वभाव दृढ़ता और संकल्प से जुड़ा होता है। वह अपने संकल्प और प्रयासों के माध्यम से अपने जीवन को ऊंचाइयों तक ले जाता है।
    कृष्ण कहते हैं:
    "खुद को कर बुलंद इतना, कि हर तकदीर से पहले,
    खुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रजा क्या है।"

हालांकि, दोनों मार्ग अंततः एक ही बिंदु पर मिलते हैं—समत्व योग, जहां व्यक्ति स्थिरता और शांति प्राप्त करता है।


तृप्ति: सबूरी में सुख

कबीर कहते हैं:
"साहब मिले ही सबूरी में।"
तृप्ति केवल भीतर की शांति और संतोष से मिलती है। जब हम अपनी इच्छाओं और बंधनों को छोड़ देते हैं, तब हमें सच्चे सुख का अनुभव होता है।

आज लोग धन, मान-सम्मान, और भौतिक सुखों के पीछे भागते हैं। परंतु, ये सब क्षणिक हैं। सच्चा सुख केवल तब मिलता है जब हम अपने भीतर की यात्रा पर जाते हैं।


अहंकार और प्रेम का संतुलन

कृष्ण ने समझाया कि जहां अहंकार शून्य होता है, वहां प्रेम और शांति होती है।
"जहां अहंकार विराट होता है, वहां दुख और अशांति होती है।
और जहां अहंकार शून्य होता है, वहां प्रेम और आनंद होता है।"

यह संतुलन केवल तब आता है जब हम अपने अहंकार को पूरी तरह से मिटा देते हैं। यह शून्यता हमें ब्रह्मांड के साथ जोड़ती है और हमें सच्चे प्रेम का अनुभव कराती है।


जीवन को महारास की तरह जीना

कृष्ण ने जीवन को एक "महारास" की तरह जीने का संदेश दिया। इसका अर्थ है कि हमें हर क्षण को आनंद, प्रेम, और शांति के साथ जीना चाहिए।
इसे सरल शब्दों में कहते हैं:
"लंबी-लंबी उमरिया को छोड़ो,
प्यार की एक घड़ी है बड़ी।"
जीवन का सार इस एक घड़ी में है, जो प्रेम और शांति से भरी हुई हो।


समत्व योग का अंतिम लक्ष्य

समत्व योग का अंतिम लक्ष्य स्थिरता और शांति प्राप्त करना है। यह केवल ध्यान या साधना तक सीमित नहीं है, बल्कि हर कर्म और हर विचार में संतुलन बनाए रखना है।

कृष्ण, कबीर, और बुद्ध सभी ने एक ही संदेश दिया:

  • अपने अहंकार और इच्छाओं को त्यागो।
  • प्रेम और समर्पण के मार्ग पर चलो।
  • अपने भीतर शांति और स्थिरता को खोजो।

यह मार्ग हमें दुख से मुक्त करता है और आनंद, प्रेम, और तृप्ति की ओर ले जाता है।


निष्कर्ष

गीता के उपदेश आज भी प्रासंगिक हैं। कृष्ण का संदेश "या तो राख हो जाओ या विराट हो जाओ" हमें अपने जीवन की प्राथमिकताओं को पुनः परिभाषित करने का अवसर देता है। यह केवल धार्मिक या दार्शनिक बात नहीं है, बल्कि यह हर व्यक्ति के लिए एक व्यक्तिगत मार्गदर्शन है।

यदि हम अपनी इच्छाओं, बंधनों, और अहंकार को त्यागकर जीवन जीने की कला सीखें, तो हम सच्चे सुख और शांति को प्राप्त कर सकते हैं। यही जीवन का सत्य है।

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